अपने काल में ‘रामचरितमानस’ जिस भी शक्ति या उदात्त आदर्श का प्रतीक रहा हो आधुनिक युग में उसके द्वारा प्रतिपादित अनेक मूल्यों पर हमें प्रश्न उठाने ही होंगे। मिथकों का ही उपयोग समाज-परिवर्तन के लिए भी किया गया है। इसी प्रेरणा से मैंने इस लघु काव्य की रचना की है। मैं राम को एक संवेदनशील महामानव के रूप में देखता हूँ जो राज-समाज की ‘मर्यादा’ बचाने में अनेक ऐसे काम करने के लिए बाध्य हैं जिनसे किसी सहृदय मानव को पीड़ा होगी। उसी पीड़ा को मैंने राम के हृदय में जो करुण रस की सरिता बही होगी मैंने उसी की कल्पना करने की चेष्टा की है। करुणा-सागर राम के हृदय में वेदना का सागर उमड़कर उन्हें और भी उदात्त और महान् ही बनाता है; नये आदर्श समता-न्याय पर आधारित नये समाज की रचना में वह प्रेरणा ही देगा ऐसा मेरा विश्वास है। सीता का शापित होना और शम्बूक का मृत्यु-दण्ड पाना किसी भी दशा में आज का मानव-मस्तिष्क न्याय के रूप में स्वीकार नहीं कर सकता भले ही मर्यादा के नाम पर कितने भी तर्क पौराणिक साहित्य के मनीषी ऋषि हमें उसके पक्ष में दें। हर काल का अपना आदर्श है हर काल की अपनी व्याख्या है। मिथकों की। जो समाज उन्हें बदलने की शक्ति नहीं रखता वह सड़ जाता है। मैं चाहूँगा कि काव्य के प्रबुद्ध पाठक इसी दृष्टि से इस ग्रन्थ को पढ़ें।