हजारीप्रसाद दास अपनी आधुनिक दृष्टि गहन परम्परा-बोध और अपने विशिष्ट ओडिय़ा स्वर के लिए पहचाने जाते हैं। वंशó में संकलित कविताएँ उनकी सुदीर्घ काव्य साधना का एक अद्वितीय उदाहरण हैं। वास्तव में यह महाभारत के प्राय: सभी चरित्रों के गम्भीर अन्तर्मन्थन की एक सुघड़ काव्य-शृंखला है। सत्तर कविताओं के माध्यम से कवि ने महाभारत की जो पुनर्रचना की है उसका प्रयोजन कथा का तकनीकी आधुनिकीकरण भर नहीं है। महाभारत की कथा-वस्तु या उसके चरित्रों की अन्त:प्रकृति में सतही बदलाव लाने की कोई चेष्टा यहाँ नहीं है। यह पुनर्पाठ आधुनिक और आत्मसजग कवि के द्वारा महाभारत के साथ सृजनात्मक अन्तर्पाठीयता का एक रिश्ता बनाने की कोशिश है। उस समय में इस समय को जोड़ देने के जोड़-तोड़ से कतई अलग यह साभ्यतिक संकट की त्रासदी के अनुभव और अवबोध की कविता है जिसे वे कथा के प्राचीन रूपाकार में कुछ इस तरह रचते हैं कि हम पूरे प्राचीन महाभारत को अपने सामयिक अनुभव की विडम्बनाओं और व्यर्थ हताशाओं की तरह घटता देखते हैं। अपने लोक-जीवन के दैनिक समय में जीते-मरते लोगों के बीच परिवेश की पास पड़ोस की छवियों के रूबरू होते हुए हम पाते हैं कि महाभारत हमारे लिए महज किसी दूरस्थ क्लासिकी ऊँचाई या गहराई का प्रतीक या रूपक भर नहीं है। लोक-जीवन की साधारण साम्प्रतिकता में परिवार के संस्कारों में किस्सों की तरह रचा-बसा महाभारत हजारीप्रसाद की सर्जना के माध्यम से हमारी आन्तरिकता का एक मार्मिक दस्तावेज बन जाता है। साथ ही यह भी महत्त्वपूर्ण है कि वंश की रचना में क्लासिकी और लोक का ऐसा अनूठा समन्वय है जो मनुष्य के आस्तित्विक संकट को सहज लोक-वाणी में सम्प्रेषित करता है।.
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