इन दिनों कथेतर साहित्य के प्रति पाठकों और प्रकाशकों की दिलचस्पी एक नये युग का सूत्रपात करती नजर आ रही है। आत्मकथा यात्रा-वृत्तांत संस्मरण डायरी जीवनी साक्षात्कार व्याख्यान आदि पर आधारित किताबें खूब छप रही हैं और वे पढ़ी भी जा रही हैं। इन्हीं विषय-वस्तुओं पर आधारित जयनंदन की तीन पुस्तकें पहले आ चुकी हैं - ‘मीमांसा के पराग’ ‘टाटाओं की जीवनी’ और ‘मंथन के चौराहे। ‘विहंगावलोकन के बहुकोण’ इनकी चौथी किताब होगी। इसमें इनके वे आलेख शामिल हैं जो समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं ने कहानियों उपन्यासों बहसतलब प्रसंगों चर्चित लेखकों युगपुरुषों और विरल चरित्र के संपर्क-सान्निध्य वाले हस्तियों पर उनसे लिखवाये हैं। इनमें कुछ वैसे त्रासद निजी आत्म-वृत्तांत भी हैं जिनसे वे गहरे प्रभावित रहे और एक यंत्रणा की तरह सहा। आलोचना और समीक्षा की स्थिति अत्यंत ही दयनीय दौर से गुजर रही है। बिना लॉबिंग लाइजनिंग या निजी संबंध बनाये कोई समालोचक किसी भी किताब की जरा भी सुधि नहीं लेता। एक और ट्रेंड देखने में आ रहा है कि चर्चित व स्थापित विचारक कथित तौर पर जो दो-तीन बड़े प्रकाशक माने जाते हैं ज्यादातर उन्हीं से प्रकाशित किताबों पर अपनी राय रखना मुनासिब समझते हैं वह भी तब जब उन तक किताबें पहुंचा दी जाये और उन्हें अनुनय प्रेषित किये जायें कि जरा अपना आप्त वचन देकर इसे धन्य बना दीजिए। इस मुंहदेखी परिस्थिति में हर रचनाकार को यथासाध्य समीक्षा तथा मंतव्य साधने की जरूरत है ताकि सुपरिचित समालोचकों पर निर्भरता कम हो। जयनंदन की यह पुस्तक वैचारिकी के दूषित प्रचलन के समक्ष एक प्रतिरोध बनकर आयी है। इस पुस्तक में कई ऐसे आलेख हैं जो न सिर्फ पाठकों को चौंकायेंगे अपितु अनेक निर्मम सच्चाइयों को बेपर्दा भी करेंगे।
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