यह एक तरह से आत्मकथा है जो शुरू होती है मै क्या हूँ? मै क्यों हूँ? आदि प्रश्नो से जो शायद बहुतों के मन को परेशान करते होंगे से लेकर अब तक की यात्रा पर खत्म होती है। इसमें लेखक की ऐसी कुछ बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं है जिसने कभी किसी इतिहास के पन्नो में स्थान पाया हो या कुछ ऐसा भौतिक साधन जिसे पाकर लोग स्वयं पर गर्व महसूस करें परन्तु एक सामान्य मानव मन जीवन में जो कुछ सामान्यतया चाहता है उतना तो है ही। इसीलिए इसे भीड़ की आत्मकथा कहना ज्यादा सच के करीब होगा जो भारत के एक सामान्य मन का प्रतिनिधित्व करती है जहाँ गुरु व् शिष्य दोनों जीवन का बहुत सारा हिस्सा गृहस्थ जीवन में ही व्यतीत किया है। इसे पाठक कर्म व् उसके परिणाम का एक जीवंत उदहारण की तरह भी देख सकते है जो इसके लिखने के पीछे एक मूल उद्देश्य है। इसमें सामान्य कहानियों या दृश्टान्तों कि तरह कोई बड़ा उतार चढ़ाव नहीं है न ही भाषा सौंदर्य है लेकिन एक गुरु शिष्य के रिश्ते के सूक्ष्मता की व्याख्या सामाजिक बाध्यताओं और उसके मानदंडों की सीमा में की गई है। इसे गुरु शिष्य व् समाज का त्रिकोणात्मक कहानी भी कह सकते है ।
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