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About The Book
Description
Author
वेटिंग टिकिट मेरे अब तक लिखे नाटकों की शैली से बिलकुल अलग है लेकिन किसी भी तरह का प्रयोग नहीं है। इस नाटक को लिखते हुए मेरा चित्त और हाड़-माँस का पुतला शांत होता चला गया। पिछले कई महीनों से हृदय में समुद्र के अंदर उठने वाले ज्वार-भाटा की तरह की हलचल थी। हृदय और मस्तिष्क दोनों ही आक्रोश से भरे थे रक्त की धारा इतनी तेज़ बह रही थी कि मुझे भय ने घेर लिया कि कहीं काल के मुख में असमय ही न समा जाऊँ। अपने ही स्वार्थ के लिये कलम उठा ली और नतीजा आपके सामने वेटिंग टिकिट के रूप में है। आज़ादी के बाद से ही देश विकासशील है विकसित नहीं हो पा रहा है। लोकतन्त्र है आज़ादी भी है पर सुकून नहीं है। आदमी अपने-आप को असहाय ही महसूस कर रहा है। साँस कब उखड़ जायेगी बस यही उसकी सोच और डर है। जीने का अधिकार ईश्वर ने दिया है लेकिन जीने की शर्तें चंद लोगों ने तय कर दी है। आजकल समाज में जो भी घटनाएँ हो रही है वो केवल भय ही पैदा करती है। जिन मुद्दो् पर मार-काट हो रही है आम आदमी का उससे कोई सरोकार नहीं है। उन मुद्दों में न तो रोटी है और न ही रोज़गार। सुबह का अख़बार केवल गोली-बन्दूक और मरने वालों की संख्या बताता है। वर्तत्षमान में चल रहे घटनाक्रम इंसान को रोज़ मरने को मजबूर कर रहे हैं। गरीब ठगा सा महसूस कर रहा है कि सान आत्महत्या को मजबूर है अंधविश्वास रूढ़िवाद कालिया नाग की तरह फन फैलाये खड़ा है। धर्म के नाम पर समाज का बँटवारा पंचायतों के मृत्युदत्युंड के निर्णवनण्षय न्यायपालिका का उपहास खुलेआम उड़ा रहे हैं। सरहद पर रोज़ देश की रक्षा करने वाले बिना युद्ध के मारे जा रहे हैं। हिंदी अख़बार केवल जेब-तराशी और बलात्कार छापते हैं। दलित शब्द लिख ना अख़बार बेचने की गारंटी है। शायद इसलिये ही हिन्दी भाषा की अन्य तमाम लेखन विधाएँ केवल वेण्टीलेटर पर पड़ी हैं। शरीर के सभी अंगो ने काम करना बंद कर दिया है। युवा पीढ़ी जागरूक है केबल टीवी और धारावाहिक केवल भोंडे और अतिकाल्पनिक कार्यय्षकर्मों से समाज के निराश जनमानस का मनोरंजन कर रहे हैं। ये कड़वा सच है लेकिन मैं इसे नकार नहीं सकता कि वो सफल है। वेटिंग टिकिट समसामयिक घटनाक्रमों पर हास्य और व्यंग्य के साथ गंभीर और गहन चिंतन है। कुंजबिहारी श्रीवास्तव