ज़ाया न कर धरती पर वजूद का इक पल भी जीवन जो अभी मौजूद है वह कल न होगा<br>कुछ यूँ शाखों से दरख़्त की पत्ते झड़कर गिरते है अरमाँ जैसे लम्हों में वक़्त के टूटकर बिखरते हैं<br>तेरे केशुओं से इन बूँदों का टपकना सारी फ़िज़ा को नई रंगत में बदल देता है<br>यादों की फ़ितरत भी लेकिन कुछ ऐसी होती है बिन बुलाए दस्तक दे जाएँ तो कोई बात नहीं<br>(इसी पुस्तक से)
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