About the Book: मानव के विकास की आरंभिक अवस्था में भाषा और लिपि से भी पूर्व मानव द्वारा अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए जिस सशक्त माध्यम को अपनाया गया वह चित्र कला है । आदिमानव द्वारा शैलाश्रयों मे उकेरे गये कहीं स्कूल तो कहीं सूक्ष्म चित्र न केवल माननीय रचनात्मकता और कल्पनाशीलता की कहानी कहते हैंअपितु इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के लिए महत्वपूर्ण सूचना स्रोत भी है । विभिन्न काल खंडों में हमारे पूर्वजों द्वारा आड़ी -तिरछी रेखाओं और सांकेतिक मानव तथा पशु आकृतियों के रूप मे छोड़े गए यह चिन्ह अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर हैं और आज भी कलाओं के मूल के रूप में अपनी मेहत्ताओं को स्थापित करते हैं । आदि काल में पूर्वजों द्वारा सांकेतिक भाषा के रूप में सृजन की गई चित्रकला ने कालांतर में विकास की विभिन्न अवस्थाओं को पार किया और देश व काल के अनुसार लोक और अभिजात्य कला का दर्जा प्राप्त किया ।विविध्यपूर्ण भारतीय लोक और जनजातिय कलाओं में परंपराओं के मूल की झलक आज भी मिलती है। ऐसी ही जनजाति कला में वारली जनजाति द्वारा की जाने वाली प्रारंभिक चित्रकला प्रमुख रूप से उल्लेखनीय है विषय वस्तु आकार प्रकार और उपयोग की जाने वाली सामग्री तथा प्रत्येक दृष्टिकोण से वारली चित्रकला आदिमानव कृत शैल कलाओं की अग्रज कहीं जा सकती है। वरली चित्र कला में उपयोग किए जाने वाले आकारों का यदि विश्लेषण किया जाए तो ज्ञात होता है कि यह केवल अनगढ़ आकृतियां ही नहीं अपितु अपने आप में सृष्टि की रचना का दर्शन और समग्र जीवन चक्र के गुढ़ अर्थों को समेटे हुए हैं ।उल्लेखनीय है कि वर्ली महाराष्ट्र के थाना जिला और समीपस्थ क्षेत्रों में निवास करने वाली एक कृषक जनजाति है।
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