<p>विश्वव्यापी साईं दर्शन से प्रेरित होकर डॉ. हरगुलाल गुप्त ने सातवें दशक के मध्य में 'युग-प्रभु साईं' महाकाव्य की रचना आरंभ की। इस महत्वपूर्ण कृति में उन्होंने ट्रिनिडाड सूरीनाम गयाना और अन्य देशों के साईं भक्तों की अगाध श्रद्धा को चित्रित किया है तथा साईं बाबा की असीम करुणा को संपूर्ण विश्व के लिए शांति और एकता के स्रोत के रूप में प्रस्तुत किया है। </p><p><b>About the Author:</b></p><p>डॉ. हरगुलाल गुप्त (जन्म 20 जुलाई 1935 करौरा जिला बुलंदशहर उत्तर प्रदेश) एक विख्यात कवि उपन्यासकार नाटककार और विद्वान हैं जिन्होंने पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज नेहरू नगर नई दिल्ली के हिन्दी विभाग में 1957 से 2000 तक रीडर के पद पर कार्य किया। उनके राजनयिक करियर ने उन्हें भारत के हाई कमीशन ट्रिनिडाड एवं टुबेगो में हिन्दी अधिकारी एवं द्वितीय सचिव (1976-81) तथा मॉरीशस में प्रथम सचिव (शिक्षा और संस्कृति) (1984-88) के रूप में विदेश भेजा जहाँ उन्होंने ट्रिनिडाड सूरीनाम गयाना जमाइका और अमेरिका में एक दशक व्यतीत करते हुए हिन्दी एवं भारतीय संस्कृति पर अनेक लेख लिखे 600 अध्यक्षीय भाषण दिए और हिन्दी प्रचार के लिए क्रियात्मक उपाय लागू किए। लोक साहित्य तथा कृष्ण-काव्य के विशेषज्ञ के रूप में डॉ. गुप्त ने 22 ग्रंथ 100 शोध निबंध और 50 दूरदर्शन एवं रेडियो वार्ताएँ प्रस्तुत की हैं और भारतीय साहित्यकार कोष उपन्यास कोष तथा अन्य प्रतिष्ठित संदर्भ ग्रंथों में साहित्यकार एवं शिक्षाविद् के रूप में उल्लिखित हैं। उनके साहित्यिक योगदान को अनेक सम्मानों से नवाजा गया है जिनमें माराबैला साईं सेंटर सनातन धर्म महासभा और आर्य सभा ट्रिनिडाड द्वारा सांस्कृतिक योगदान हेतु सम्मान मॉरीशस में आर्य प्रतिनिधि सभा एवं नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा हिन्दी प्रचार हेतु पुरस्कार आर्य प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा नई दिल्ली द्वारा विदेशों में हिन्दी प्रचार और आर्य संस्कृति से सम्बद्ध नाटकों के लेखन हेतु विशेष सम्मान हिन्दी अकादमी दिल्ली सरकार द्वारा 'अंकुर' पत्रिका के संपादन के लिए श्रेष्ठ संपादक का पुरस्कार उपन्यास 'गंगा के मौन किनारे' के लिए श्रेष्ठ कृति का पुरस्कार (1996-97) तथा इंद्रप्रस्थ साहित्य भारती द्वारा 'ग्राम-देवता' के लिए श्रेष्ठ कृति का सम्मान (2006) शामिल हैं। </p>
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