यह संकलन एक प्रयास है न सिर्फ़ अपनी रचनाधर्मिता को स्वर देने का बल्कि इसके द्वारा हमारी आजकल की ज़िंदगी के उन मुद्दों को रेखांकित करने का जो जाने अनजाने हमारे ज़मीर के दरवाज़ों पर दस्तक देने लगते हैं। मुख्यतः ज़िंदगी के सरोकारों को टटोलती इस किताब में बीते दिनों की यादों जिसे आप नॉस्टैल्जिया कह सकते हैं की कसक है; इनमें ग़ज़ल की सबसे बड़ी पहचान यानी जज़्बा-ए-आशिक़ी की हल्की-सी झलक है और इन सबसे बढ़कर सामाजिक संवेदनाऒं और सरोकारों और उससे जन्मी छटपटाहट का स्वर मुखर है। समाज में हाशिए पर धकेले गए जनसाधारण की चीख़ को भी शब्दों में सहेजने का अकिंचन प्रयास है। एक औरत होने की पीड़ा और 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो' की ज़िद भी शामिल है। भाषा में अपनी गंगा जमनी तहज़ीब का फ़्लेवर है जो कैफ़ी साहिर गुलज़ार और दुष्यंत कुमार का विरसा है। आगे अंतिम निर्णय सुधि पाठकों के हाथ में है। आपको निराशा नहीं होगी इसी विश्वास के साथ ये पहली कोशिश आप सबकी नज़र है......
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