नज़्म हो या ग़ज़ल अगर ख़्याल में पुख़्तगी है तो बयान में लज़्ज़त आ जाना लाज़मी है। लोकेश जी की नज़्मों में कुछ ऐसी ही नाज़ुक ख़्याली है...उनका अपने ही अंदाज़ में कुछ कह जाना फिर मुड़कर न देखना पाठक को साथ-साथ चलने को बाध्य करता है पाठक उनका हाथ पकड़ कर तब तक साथ चलता है जब तक वो ये नहीं पढ़ लेता ‘प्यार है तो स्वीकार कर... मुझे।’ उनकी नज़्म ‘क्या मेरा आना ज़रूरी है।’ पढ़ते-पढ़ते पाठक को याद आने लगता है उसका कोई भूला हुआ मंज़र और कोई रिसता हुआ ज़ख्म और वो अदीब की नज़्म में अपना ही माज़ी ढूढ़ने लगता है। पाठक के साथ ऐसा ताल में अदीब की क़ामयाबी का सबूत है; ‘न तुम्हें ख़त में समेट पाया न किताबों में गहरा सवाल थी तुम मेरी जागती रातों का।’ ऐसी पंक्तियाँ पढ़ने वालों के साथ रह जाती हैं। पुस्तक एक सफल प्रयास है। मुबारक हो !! उमा त्रिलोक लेखिका एवं कवियत्राी
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