साहित्य में ‘मंज़रनामा’ एक मुकम्मिल फॉर्म है। यह एक ऐसी विधा है जिसे पाठक बिना किसी रुकावट के रचना का मूल आस्वाद लेते हुए पढ़ सकें। लेकिन मंज़रनामा का अन्दाज़े-बयाँ अमूमन मूल रचना से अलग हो जाता है या यूँ कहें कि वह मूल रचना का इंटरप्रेटेशन हो जाता है। मंज़रनामा पेश करने का एक उद्देश्य तो यह है कि पाठक इस फॉर्म से रू-ब-रू हो सकें और दूसरा यह कि टी.वी. और सिनेमा में दिलचस्पी रखनेवाले लोग यह देख-जान सकें कि किसी कृति को किस तरह मंज़रनामे की शक्ल दी जाती है। टी.वी. की आमद से मंज़रनामों की ज़रूरत में बहुत इज़ा$फा हो गया है। ‘कोशिश’ गुलज़ार की सबसे चर्चित और नई ज़मीन तोडऩेवाली फिल्मों में से है। गूँगे-बहरे लोगों के विषय में एक जापानी फिल्म से प्रेरित होकर उन्होंने हिन्दी में ऐसी एक फिल्म बनाने का जोखिम उठाया और एक मौलिक फिल्म-कृति हिन्दी दर्शकों को दी। फिल्म में कलाकारों के अभिनय और संवेदनशील निर्देशन के कारण इस फिल्म को क्लासिक फिल्मों में गिना जाता है। यह इसी फिल्म का मंज़रनामा है।
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