साहित्य में मंज़रनामा एक मुकम्मिल फॉर्म है। यह एक ऐसी विधा है जिसे पाठक बिना किसी रुकावट के रचना का मूल आस्वाद लेते हुए पढ़ सकें। लेकिन मंज़रनामा का अन्दाज़े-बयाँ अमूमन मूल रचना से अलग हो जाता है या यूँ कहें कि वह मूल रचना का इन्टरप्रेटेशन हो जाता है। मंज़रनामा पेश करने का एक उद्देश्य तो यह है कि पाठक इस फॉर्म से रू-ब-रू हो सकें और दूसरा यह कि टी.वी. और सिनेमा में दिलचस्पी रखनेवाले लोग यह देख-जान सकें कि किसी कृति को किस तरह मंज़रनामे की शक्ल दी जाती है। टी.वी. की आमद से मंज़रनामों की ज़रूरत में बहुत इज़ाफा हो गया है। समरेश बसु की कहानी पर आधारित गुलज़ार की फिल्म नमकीन जि़न्दगी के बीहड़ में रास्ते टटोलती जिजीविषा के बारे में है। अपने और अपनों के जीने के लिए सम्भावनाएँ बनाने की ज़द्दोजहद के साथ-साथ सामाजिक हिंसा के बीच अकेले पड़ते और मरते जाने की कथा। आज हम अपनी नई निगाह से देखें तो यह औरत की बेबसी और मर्द पर उसकी परम्परागत निर्भरता का कारुणिक आख्यान भी है।
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